पत्रकार राजीव प्रताप मौत प्रकरण : AC स्टूडियो में आराम, ज़मीन पर सच्चाई बोलने वालों की लाशें | Rajiv Patrakar
Rajeev Patrakar, Uttarkashi
पत्रकारिता की दुनिया में सबसे बड़ा खतरा उन लोगों को रहता है जो स्टूडियो की एसी ठंडक में नहीं, बल्कि ज़मीनी सच्चाइयों के बीच काम करते हैं। एक बार फिर वही हुआ है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले से जुड़ी दुखद खबर सामने आई है। यहां स्थानीय मुद्दों पर लगातार लिखने-बोलने वाले पत्रकार राजीव प्रताप (Rajiv Patrakar) की मौत हो गई।
- हमेशा ज़मीन पर काम करने वाले पत्रकार ही क्यों मरते हैं?
- क्यों हर बार वो आवाज़ खामोश होती है जो सच बोलने की हिम्मत करती है?
- और क्यों स्टूडियो की ठंडी हवा खाने वाले “मशहूर पत्रकार” ऐसे मौकों पर चुप्पी साध लेते हैं?
राजीव प्रताप, उत्तरकाशी के वही पत्रकार, जो हाल ही में ज़िला अस्पताल के भ्रष्टाचार पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। धमकियां मिलीं, फिर 18 सितंबर की रात ग़ायब हो गए। कार नदी में मिली, अंदर से वो ग़ायब। दो दिन बाद शव बांध किनारे मिला। पुलिस कह रही है – “एक्सीडेंटल चोटों से मौत हुई”। परिवार कह रहा है – “ये हत्या है, हमें CBI जांच चाहिए।”
यानी कहानी वही पुरानी – मौत हो जाए तो हादसा कह दो, सवाल उठे तो जांच की बात कर लो।
इससे पहले छत्तीसगढ़ के मुकेश चंद्राकर को भी सच बोलने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी थी। उनका शव सेप्टिक टैंक से मिला था। अब राजीव प्रताप का शव नदी किनारे। फर्क सिर्फ इतना कि नाम अलग हैं, हालात वही।
कटाक्ष यही है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला पत्रकार असल में सबसे कमज़ोर और सबसे असुरक्षित है। जो स्टूडियो में बैठे हैं, वे अपने आराम और चुप्पी को सुरक्षा कवच मान चुके हैं। सवाल वही – जो अपनी बिरादरी के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते, वे देश और समाज के लिए किस बात की आवाज़ उठाएंगे?
राजीव प्रताप की मौत सिर्फ एक पत्रकार की मौत नहीं, बल्कि उस सच्चाई की मौत है जिसे दबाने के लिए सत्ता और तंत्र हमेशा तैयार रहता है।
