यूपी की धूल भरी पगडंडियों से लेकर चौपालों की मिट्टी तक — इन दिनों लोकतंत्र की हलचल महसूस की जा सकती है।
प्रधानी चुनाव का बिगुल बज चुका है, और अब हर गाँव एक राजनीतिक रणभूमि में तब्दील हो चुका है।
कहीं माइक से प्रचार के स्वर हवा में गूंज रहे होंगे, तो कहीं युवा समर्थक नारे बनाकर दीवारों पर रंग भर रहे होंगे।
गाँव के हर नुक्कड़ पर चर्चा है — “इस बार कौन संभालेगा पंचायत की कमान?”
यह सिर्फ चुनाव नहीं, बल्कि गाँव के आत्मसम्मान की लड़ाई है।
यह वही जगह है जहाँ लोकतंत्र सबसे गहराई तक अपनी जड़ें फैलाता है — बिना किसी मीडिया की चमक-धमक, बिना किसी बड़े मंच के।
सहारनपुर से लेकर सोनभद्र तक, चौपालों में बहसें जारी हैं।
पुराने प्रधान अपने विकास कार्यों का लेखा-जोखा सुना रहे हैं, तो नए चेहरे नई उम्मीदों और वादों का झंडा उठा रहे हैं।
लाउडस्पीकरों पर गूंजते नारे, मिट्टी में उठती चुनावी धूल, और भीड़ के बीच चलती रणनीतियाँ — सब मिलकर लोकतंत्र के इस लोकपर्व को और जीवंत बना रही हैं।
राज्य निर्वाचन आयोग ने प्रत्याशियों के लिए व्यय सीमा तय की है —
लेकिन असली लड़ाई पैसों की नहीं, जनविश्वास की है।
मीरापुर की 60 वर्षीय शकुंतला देवी कहती हैं —
“अब हमें वादे नहीं चाहिए, काम चाहिए। जो गाँव की तकदीर बदलेगा, वही प्रधान बनेगा।”
गाँवों में अब चुनाव एक उत्सव नहीं, बल्कि जनसत्ता के पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया है।
जहाँ शहरों में राजनीति बयान बन चुकी है, वहीं इन गाँवों में यह अब भी जीवन का हिस्सा है —
एक ऐसी परंपरा, जो मिट्टी की गंध के साथ साँस लेती है, और हर वोट के साथ लोकतंत्र को नई ऊर्जा देती है।
