यह रिपोर्ट न्यूज़ हाईवे के एडिटर-इन-चीफ़ सचिन त्यागी द्वारा उत्तर प्रदेश के गाँवों की धरातली सच्चाई पर आधारित है। सचिन त्यागी ने इस रिपोर्ट में प्रधानी चुनाव के उस असली चेहरे को सामने लाने का प्रयास किया है, जो चुनावी नारों और वादों के पीछे छिपा रहता है। यह केवल राजनीति की कहानी नहीं, बल्कि उस समाज की झलक है जहाँ लोकतंत्र जड़ों में सांस लेता है, कभी उम्मीदों के रूप में, तो कभी हताशा के साये में। यह रिपोर्ट बताती है कि यूपी का पंचायत चुनाव आज भी गाँव के मान-सम्मान, वर्चस्व और सामाजिक संतुलन की असली परीक्षा है।
उत्तर प्रदेश की पंचायत राजनीति देश के सबसे जीवंत लोकतांत्रिक अध्यायों में से एक है। यहाँ प्रधानी का चुनाव केवल विकास का मुद्दा नहीं, बल्कि समाज के सम्मान, जातीय समीकरण और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की जंग बन चुका है। यह वो लड़ाई है जहाँ गिनती वोटों की होती है, पर असल मुकाबला “अहम” और “रिश्तों” का होता है।
गाँवों की गलियों में जैसे ही चुनाव की तारीखें घोषित होती हैं, माहौल बदल जाता है। खेतों की मेड़ों से लेकर चाय की दुकानों तक बहस छिड़ जाती है — “इस बार कौन बनेगा प्रधान?” लोग मानो अपनी पूरी सामाजिक और राजनीतिक पहचान इसी एक चुनाव में दांव पर लगा देते हैं। पंचायत चुनाव यहाँ एक त्योहार की तरह नहीं, बल्कि इज्जत बचाने की परीक्षा बन जाता है।
गाँव की हवा और सियासत की गंध
मेरठ, मुजफ्फरनगर, ललितपुर, गोंडा, बलिया या प्रयागराज — हर जिले में कहानी लगभग एक जैसी है। कहीं चाचा-भतीजा आमने-सामने हैं, तो कहीं ससुर-बहू का मुकाबला। गाँव में रिश्ते टूटते हैं, दोस्तियाँ बदल जाती हैं। चुनावी माहौल में मुस्कान के पीछे रणनीति छिपी होती है। एक ओर पुराना प्रधान अपने “काम के रिकॉर्ड” का हवाला देता है, तो दूसरी ओर नया प्रत्याशी “बदलाव” का नारा लगाता है।
पर ज़मीनी सच्चाई यही है — यहाँ न तो मुद्दे असल में विकास के होते हैं, न ही वोट जात से परे जाते हैं। गाँव के भीतर आज भी वोट का पहला सवाल यही होता है — “किस कुटुम (परिवार या ख़ानदान) से है?”
पैसे, जात और प्रभुत्व की राजनीति
ज्यादातर गाँवों में चुनाव खर्च का कोई तय पैमाना नहीं। पोस्टर, प्रचार, भोज, शराब — सब चल रहा होता है। कुछ प्रत्याशी “काम करवाने” का वादा करते हैं, कुछ “काम रुकवाने” का डर दिखाते हैं। और चुनाव के बाद वही रास्ते, वही अधूरे वादे, वही टूटी सड़कें और वही हालात दोबारा लौट आते हैं।
कई जगहों पर महिलाओं की आरक्षित सीटों पर असल में “पुरुष प्रधान” राज करते हैं। महिला प्रत्याशी केवल नाममात्र की मुखिया होती है, असली सत्ता परिवार के पुरुषों के हाथों में रहती है।
मतदान का दिन — लोकतंत्र का लोक उत्सव
सुबह सूरज निकलने से पहले ही गाँव में हलचल शुरू हो जाती है। महिलाएं चुनरी ओढ़े वोट डालने निकलती हैं, बुजुर्ग लाठी के सहारे, और नौजवान मोबाइल पर “सेल्फी विथ वोट” डालते हुए गर्व से कहते हैं — “हमने लोकतंत्र निभाया।” लेकिन इस उत्सव के पीछे भी एक अनकही बेचैनी रहती है — कहीं गिनती में खेल न हो जाए!
मतदान के बाद गाँव की चौपालें फिर से भर जाती हैं। वहां चर्चा होती है — “कितना वोट पड़ा?”, “किसका पलड़ा भारी है?” और जब नतीजे आते हैं तो किसी घर में मिठाई बंटती है, तो किसी में चुप्पी छा जाती है।
गाँव के लोग कहते हैं —
“साहब, प्रधान बदलता है, पर गाँव की राजनीति नहीं। चेहरा नया होता है, पर तरीका वही पुराना।”
और यही इस लोकतंत्र की खूबसूरती भी है और विडंबना भी। पंचायत चुनाव आज भी गाँव की आत्मा का आईना हैं, जहाँ जनता लोकतंत्र में भाग तो लेती है, पर असल विकास अब भी अगली सरकार या अगले प्रधान के भरोसे छोड़ देती है।
अंत में यही कहा जा सकता है —
उत्तर प्रदेश के प्रधानी चुनाव केवल सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि उस समाज की सच्ची झलक हैं जो आज भी अपने अस्तित्व, मान-सम्मान और पहचान के लिए संघर्षरत है। यहाँ हर वोट के पीछे एक कहानी है — और हर प्रधान के पीछे एक पूरा गाँव।
✍️ लेखक: सचिन त्यागी, एडिटर-इन-चीफ़, न्यूज़ हाईवे
