समाचार चैनलों की विवेक-बुद्धि पर प्रश्न चिन्ह: धर्मेंद्र की फर्जी खबर ने पत्रकारिता की आत्मा को झकझोरा

नई दिल्ली। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह सत्य, संवेदना और जिम्मेदारी के साथ जनता तक सूचना पहुंचाए, लेकिन आज की “सबसे पहले दिखाने की होड़” ने पत्रकारिता की आत्मा को हिला दिया है। हाल ही में अभिनेता धर्मेंद्र के निधन की झूठी खबर ने इसी कड़वी सच्चाई को उजागर कर दिया।

10 नवंबर 2025 की रात सोशल मीडिया पर अचानक खबर फैली कि धर्मेंद्र अब हमारे बीच नहीं रहे। देखते ही देखते यह “ब्रेकिंग न्यूज़” बन गई। कई चैनलों और ऑनलाइन पोर्टलों ने बिना पुष्टि के यह समाचार प्रसारित कर दिया। यहां तक कि कुछ ट्वीट्स में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के “शोक संदेश” तक जोड़ दिए गए। लेकिन सच्चाई यह थी कि धर्मेंद्र जी केवल अस्वस्थ थे और मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उपचाराधीन थे।

परिवार की ओर से हेमा मालिनी और ईशा देओल ने स्वयं सामने आकर यह स्पष्ट किया —

“पापा बिल्कुल स्वस्थ हैं। कृपया झूठी खबरें फैलाने से बचें।”

इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि सोशल मीडिया पर शुरू हुई एक अपुष्ट सूचना किस तरह मुख्यधारा मीडिया तक पहुंचकर “सत्य” का रूप ले लेती है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।
1981 में दूरदर्शन ने गलती से समाचार प्रसारित किया था कि प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस दत्त का निधन हो गया है। पूरे देश में शोक छा गया था, लेकिन कुछ घंटे बाद स्पष्ट हुआ कि यह खबर झूठी थी। यही नहीं, अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर और दिलीप कुमार के जीवनकाल में भी उनके निधन की अफवाहें बार-बार फैलाई जा चुकी हैं।

इन सभी घटनाओं में एक समानता है — सत्यापन की कमी, सनसनी की अधिकता और जिम्मेदारी का अभाव।

आज जब सोशल मीडिया हर व्यक्ति को “रिपोर्टर” बना देता है, तब पारंपरिक मीडिया की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन अफसोस, टीआरपी और “पहले दिखाने” की दौड़ में कई बार पत्रकारिता का विवेक पीछे छूट जाता है। किसी व्यक्ति के निधन जैसी खबर केवल सूचना नहीं होती — वह भावनाओं, स्मृतियों और मानवीय मर्यादा से जुड़ी होती है।

अब समय है आत्ममंथन का।
मीडिया संस्थानों को समझना होगा कि “सबसे पहले दिखाना” कभी भी “सही दिखाने” से बड़ा नहीं हो सकता। पत्रकारिता का धर्म केवल खबर देना नहीं, बल्कि सत्य, संवेदना और जिम्मेदारी के साथ समाज को दिशा देना है। जब मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो देता है, तो लोकतंत्र की जड़ें हिल जाती हैं।

✍️ हिमांशु कुमार पाठक
हल्द्वानी (उत्तराखंड)