“गरीबों की लड़ाई लड़ते लड़ते नेता अमीर कैसे हो जाते हैं? जनता के नाम पर सत्ता, और सत्ता के नाम पर दौलत — सच्चाई जो चुभती है, झकझोर देती है।”
कहते हैं कि नेता जनता की सेवा के लिए राजनीति में आते हैं, लेकिन कुछ सालों में ही उनका हुलिया बदल जाता है। जो कभी साइकिल से मोहल्ले में घूमते थे, अब लंबी-लंबी गाड़ियों के काफ़िले में चलते हैं। जो कभी झोपड़ी में बैठकर चाय पीते थे, अब पाँच सितारा होटलों में रणनीति बनाते हैं। सवाल वही पुराना है, लेकिन जवाब आज तक किसी ने नहीं दिया – गरीबों की लड़ाई लड़ते लड़ते नेता खुद अमीर कैसे हो जाते हैं?
हर चुनाव से पहले गाँव की गलियों में वही वादा दोहराया जाता है – “हम गरीबों की आवाज़ उठाएँगे, आपके अधिकार दिलाएँगे।” लेकिन जैसे ही कुर्सी मिलती है, आवाज़ का लहजा और दिशा दोनों बदल जाते हैं। अब वो जनता से नहीं, जनता पर बोलते हैं। जिन गलियों में जाकर वोट माँगे थे, वहाँ अब धूल उड़ती है। पर उनकी गाड़ियों के शीशे इतने गहरे हैं कि बाहर की सच्चाई दिखाई ही नहीं देती।
राजनीति अब संघर्ष नहीं, बल्कि निवेश बन चुकी है। एक नेता जब जीतता है तो लगता है जैसे कोई बिजनेस डील फाइनल हुई हो। फोटो में अब जनसेवा नहीं, पोज़ दिखती है। झंडा वही है, लेकिन मकसद बदल चुका है। जनता अब हँसते हुए कहती है कि नेता गरीबों के साथ रहते हैं सिर्फ तब तक, जब तक खुद गरीब रहते हैं।
कभी राजनीति सेवा का माध्यम थी, लेकिन अब यह सुविधा का ज़रिया बन चुकी है। जनता भूखी है, पर भाषणों में उसके लिए विकास का मीठा गीत गाया जाता है। किसानों की ज़मीनें बिक जाती हैं, बेरोज़गारों के सपने टूट जाते हैं, और सत्ता की चौखट पर हर कोई जनता का हमदर्द कहलाता है।
गरीब की थाली में दाल नहीं, लेकिन नेता की टेबल पर डील्स हैं। वो कहते हैं कि हमने जनता के लिए सब कुछ किया, मगर बैंक बैलेंस में जनता का नाम तक नहीं होता। सवाल फिर वही है और शायद आगे भी रहेगा – क्या सच में ये लड़ाई गरीबों के लिए है या सिर्फ उनकी ज़रूरतों को सीढ़ी बनाकर कोई और ऊपर चढ़ रहा है?
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, भारत का लोकतंत्र आधा-अधूरा ही रहेगा, जहाँ जनता वोट डालती है उम्मीद से और जागती है मोहभंग से।
