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बिहार में सत्ता नहीं, बस चेहरा तय है — इस बार भी नीतीश जी किस ओर से सीएम बनेंगे?

वोटर बदलते हैं, पार्टियाँ बदलती हैं, लेकिन बिहार में एक चीज़ कभी नहीं बदलती — मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
हर चुनाव के बाद बस एक ही सस्पेंस रहता है: *“इस बार नीतीश किस तरफ़ से शपथ लेंगे?

बिहार की राजनीति का रंग कुछ ऐसा है कि यहां मौसम चाहे जैसा बदल जाए, लेकिन सत्ता की कुर्सी पर नीतीश कुमार का नाम हमेशा ताज़ा रहता है। चुनाव जीतिए या हारिए, गठबंधन बनाइए या तोड़िए — आख़िर में चेहरा वही रहता है: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार।
ये वो बिहार है जहाँ “वोटर बदल जाता है, पार्टी बदल जाती है, नारे बदल जाते हैं, लेकिन सत्ता का समीकरण जब भी जुड़ता है, जोड़ हमेशा नीतीश कुमार पर ही टिकता है।”

अब फिर वही सियासी मौसम लौट आया है — बयानबाज़ी तेज़, जुमले गरम, और जनता का मूड ठंडा। पर इस बार एक नया सवाल भी है: क्या वाक़ई इस बार कुछ बदलेगा?
नीतीश की कुर्सी — बिहार की सबसे स्थायी चीज़
कहते हैं कि बिहार में दो चीज़ें अटल हैं — लिट्टी-चोखा का स्वाद और नीतीश कुमार की कुर्सी।
2005 में जब पहली बार सत्ता में आए, तब लगा कि “सुशासन बाबू” नई कहानी लिखेंगे। कहानी तो लिखी, लेकिन हर अध्याय में एक नया गठबंधन, एक नया समीकरण जुड़ता चला गया।
कभी भाजपा के साथ “सुशासन का चेहरा”, कभी लालू के साथ “महागठबंधन का कंधा”, और फिर अचानक “घोषित NDA का भरोसा”।
सियासत में नीतीश कुमार ने वो कला सीख ली है — “हर बार गिरकर भी सरकार बनाना।”

जनता की थकान बनाम नीतीश की ठसक
अबकी बार जनता का मूड थोड़ा अलग दिख रहा है। “नीतीश फिर से?” वाली थकान है।
पटना की चाय की दुकानों से लेकर मधुबनी के चौक तक, हर जगह एक ही लाइन सुनाई देती है —
“अरे भाई, अब ई बदलना चाहिए… लेकिन बदल के का होगा? आखिर में सीएम तो वही बनेगा न!”

नीतीश कुमार का यही कमाल है। विरोधी बोलते हैं “जनता ऊब गई है”, और समर्थक कहते हैं “ऊब गई तब भी कौन विकल्प है?”
और सच भी यही है, बिहार की राजनीति में कोई ऐसा चेहरा नहीं जो पूरे राज्य में नीतीश की तरह ‘स्वीकार्य’ हो — या कहिए ‘समायोज्य’।
यानी हर पार्टी के लिए फिट, हर समीकरण में हिट।

कुर्सी के गणित में मास्टर

राजनीति में नीतीश कुमार को अब लोग “CM मशीन” कहने लगे हैं।
2005 से लेकर 2025 तक, लगभग हर गठबंधन उन्होंने आज़माया है —
JD(U)+BJP, JD(U)+RJD, JD(U)+Congress, फिर से JD(U)+BJP, फिर अलग, फिर साथ…
बिहार की राजनीति में ऐसा कोई गठबंधन नहीं बचा जिसमें नीतीश बाबू का नाम न जुड़ा हो।

और सबसे दिलचस्प बात — हर बार जनता को लगता है “अबकी बार बस, अब नहीं आएंगे”,
लेकिन नीतीश जी कहते हैं, *“राजनीति में स्थायी दुश्मन नहीं होते, बस स्थायी मुख्यमंत्री होते हैं।”

2025 का रण — फिर से वही कहानी?

आने वाले विधानसभा चुनाव में हालात अजीब हैं।
RJD अपनी खोई जमीन तलाश रही है, BJP नीतीश से हिसाब बराबर करने की रणनीति बना रही है, और JDU अब भी “राजनीतिक योग” कर रही है — जहां-जो फायदा दिखे, वहीं आसन जमा लेती है।
राजद के नेता तेजस्वी यादव कह रहे हैं, “अबकी बार जनता बदलाव करेगी।”
लेकिन बिहार की जनता हंसती है — “बदलाव तो हर बार होता है, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बदलते।”

सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार फिर से बैकचैनल बातचीत में सक्रिय हैं। भाजपा और जदयू के बीच फिर कोई “नई समझदारी” बन रही है।
यानी जनता का मूड चाहे जैसा हो, सत्ता की कुर्सी का डिजाइन हमेशा नीतीश फिट बनकर ही निकलता है।

राजनीति नहीं, सर्वाइवल आर्ट

नीतीश कुमार की राजनीति अब सिर्फ सत्ता तक सीमित नहीं रही, ये “सर्वाइवल आर्ट” बन चुकी है।
लालू के साथ गए तो बोले “भाजपा सांप्रदायिक है”,
भाजपा के साथ आए तो कहा “लालू भ्रष्टाचार का चेहरा हैं।”
अब जनता पूछती है — “नीतीश जी, असली दुश्मन कौन है?”
और वो मुस्कुराकर जवाब देते हैं — “जो सत्ता में नहीं है!”

बिहार की जनता इस कला को समझ चुकी है। लेकिन विरोध के बावजूद नीतीश को वोट मिल जाता है, क्योंकि “कन्फ्यूज मतदाता” भी जानता है कि राज्य का प्रशासन चाहे जैसा हो, नीतीश के रहते पूरी अराजकता नहीं होगी।
यही उनका ‘ट्रेडमार्क’ है — न बहुत अच्छा, न बहुत बुरा, बस चलता हुआ सिस्टम।

बदलाव का दावा, लेकिन चेहरा वही

हर चुनाव में लोग कहते हैं — “अबकी बार नया बिहार बनेगा।”
पोस्टर बदल जाते हैं, नारों में जोश बढ़ जाता है, लेकिन आखिर में फिर वही फोटो, वही चेहरा, वही शपथ।
जैसे बिहार की राजनीति का संविधान कहता हो — “मुख्यमंत्री का पद स्थायी रूप से नीतीश कुमार के पास रहेगा।”

आख़िरी सवाल — क्या इस बार सच में बदलाव होगा?

अब बात वही — जनता तय करेगी, लेकिन इतिहास गवाह है कि बिहार में फैसला जनता करती है,
पर शपथपत्र नीतीश पढ़ते हैं।
और यही वजह है कि 2025 के चुनाव में भी सबसे बड़ा सस्पेंस वही रहेगा —
“नीतीश जी इस बार किस तरफ़ से सीएम बनेंगे?”

क्योंकि बिहार की राजनीति में एक कहावत तो अब पत्थर की लकीर बन चुकी है —
👉 “राजनीति बदलती रहती है, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं।”