अररिया की महादलित बस्ती: वादों की सियासत बनाम ज़मीनी फाकाकशी
बिहार के अररिया ज़िले की सिकटी विधानसभा के नेमुआ पिपरा गांव
बिहार की सियासत में दलित–महादलित की राजनीति खूब चमकाई जाती है। मंचों से बड़े–बड़े वायदे, घोषणाएँ और घोषणापत्रों के पन्ने गवाही देते हैं कि “सबका साथ–सबका विकास” का नारा सबसे पहले इन्हीं बस्तियों तक पहुँचेगा। लेकिन अररिया ज़िले की सिकटी विधानसभा के नेमुआ पिपरा गांव में कदम रखते ही लगता है कि हकीकत सियासी किताबों से बहुत अलग है।
यह गांव बताता है कि भारत चाहे $4 ट्रिलियन इकोनॉमी की दुहाई दे, पर यहां के लोग उस “नए भारत” के पोस्टर पर भी कहीं नज़र नहीं आते। रोज़ाना की 300 रुपये दिहाड़ी ही इनका भविष्य तय करती है। इनके लिए जीएसटी, बजट या महंगाई की राजनीति किसी मायने नहीं रखती। इनका पूरा संघर्ष पेट भरने और बच्चों को आधे–अधूरे स्कूल भेजने तक सीमित है।
गांव में सरकारी योजनाओं का ढोल पीटा जाता है, लेकिन न सड़कें बनीं, न पक्के घर आए, न अस्पताल। वोट की राजनीति में “महादलित” शब्द हर नेता की ज़ुबान पर रहता है, मगर चुनाव ख़त्म होते ही बस्ती फिर उसी अंधेरे में धकेल दी जाती है।
गांव के लोग खुद कहते हैं— “नेता लोग चुनाव में आके हाथ जोड़ लेते हैं, फिर जीतने के बाद हमें याद भी नहीं करते।”
नेमुआ पिपरा की महादलित बस्ती दरअसल एक आईना है, जिसमें बिहार की सियासत का चेहरा साफ़ दिखता है—जहां नारे और घोषणाएं चमकदार हैं, लेकिन हकीकत फाकाकशी और बेबसी से कराची हुई।
Web Title : Araria ki Mahadalit Basti: Vadon ki Siyasat vs Zameeni Fakakashi
